Thursday, May 17, 2018

सीमा


सीमा   
कितनी बार कहा है मेरी किताबे मत हटाया करिये लेकिन आप सुनती ही नही हैं बड़ी मुश्किल से आज ही अलमारी मे सब ठीक से रखे है... आप लोग सब इधर उधर कर देते हैं ... मुझे ढूँढने मे परेशानी होती है ....रखिए जहां से उठायी हैं वहीं पे ...
उसके खाली कमरे मे पड़ी किताबों को जब भी देखती हूँ तो ऐसा लगता कि वो अभी भी अपनी कुर्सी पर बैठी पढ़ रही है और जैसे ही मै कोई किताब हाथ लगाऊँगी बोल पड़ेगी....उसका स्वर अभी भी उतना ही स्पष्ट और मधुर सुनाई पड़ता है। किताबों का संसार मेरे नसीब मे नही था पर उसकी दुनिया मे मानो मैंने सब पढ़ लिया हो ...सब जान लिया हो । हर काम को सलीके से,ईमानदारी से करना उसका स्वभाव था,नीरस और बेजान सी दिखने वाली वस्तुएं मानो उसके हुनर का सानिध्य पा खिल उठती थी।फर्श  पर बनी रंगोली,दीवारों की कलाकृतियाँ,स्लोगन,गमलों की सजावट, बड़े सेरेमिक कॉफी मग पर भाइयों के संग मुसकुराती आज भी पूरी ताजगी और उमंग से जीवंत है।
बचपन मे जब उसका नामकरण किया तो कहाँ जानती थी कि नन्ही सी सीमा स्वयं मे सीमाओं से परे है। छोटी छोटी बातों मे अपने अधिकारों के लिए सब से लड़ जाना उसके लिए आम बात थी फिर चाहे वो घर हो,स्कूल हो या फिर विश्वविद्यालय का प्रांगण हो,सत्य का साथ देने मे वो कभी पीछे नही थी,,उसके लिए फिर चाहे हर व्यक्ति से टकराना पड़े वो हमेशा तत्पर रहती थी। मुझे आज भी याद वो सुबह जब मैंने अखबार उठाया तो अखबार के पन्नो मे उसकी तस्वीर छपी थी इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे एंबुलेंस की मांग को कुछ विद्यार्थी आंदोलन रत थे उस कतार मे वह सबसे आगे थी ।सत्य के संघर्ष मे वो हमेशा सबसे आगे रहना चाहती थी।
किन्तु जहां एक तरफ वो जगत की ज़िंदादिली और उमंग को पलकों मे रखती थी वही दूसरी ओर समाज मे व्याप्त द्वेष,कलह और नफ़रतों के लिए उसके ह्रदय मे अपार पीड़ा थी। उससे जुड़े प्रत्येक शख्स का दुख जैसे उसका दुख था। वो अक्सर दूसरों के दुख मे आँसू बहाती थी । औरों के लिए उसका इस प्रकार बिलखना, आँसू बहाना मुझे परेशान कर देता था। मुझे हर वक़्त उसकी चिंता रहती थी। उसके सीधे-साधे तीखे प्रश्नो का कोई उत्तर मेरे पास नही होता था । बस  नियति और कर्म का लेख बता किसी प्रकार उसको सांत्वना देने का प्रयास करती थी ।
हर रिश्ते को वह समझती और जीती थी यही वजह है शहर हो या गाँव हो हर संबंधी,नातेदार उसे अपने हृदय मे रखता था । जब भी मौका मिलता गाँव जाने के लिए बेकरार रहती ,,, खेतों की मेडों पर बैठ घंटो परिजनों के संग बातें करती,खिलखिलाती। मै उसे निहारती ईश्वर से प्रार्थना करती ।
किन्तु काल के गर्भ मे क्या छिपा है कौन जानता था। एक असाध्य बीमारी मेरी बच्ची को इस तरह तोड़ देगी मै भी कहाँ जान पायी। पीड़ा और तकलीफ के न जाने कितने दौर,शब्दों मे जिक्र करना भी मुश्किल.. जिनसे वह गुजरी। पर कभी हार नहीं मानी । अपनी बीमारी को कभी अपने व्यक्तित्व पर हावी नही होने दिया । मुश्किल से मुश्किल दौर मे भी जब साँसे थक जाती,कदम दर्द से बेहाल हो जाते वो अपनी धुन मे चलती रहती । पीड़ा के उन वर्षों मे कब वह सीमा से अपराजिता हो गयी,पता भी नही चला। आज उसकी डायरी को खोलती हूँ तो अस्पताल मे गुजारे उन पलों को उसके शब्दों मे अनुभव करती हूँ –

जिंदगी जैसे थम सी गई हो मेरी .. अब हॉस्पिटल के एक ही कमरे मे सुबह से शाम हो जाती है,ऐसा लगता है जैसे जीवन के हर रूप को अपने आस-पास ही देख रही हूँ । कहीं पर बेबसी और मायूसी ने इंसान को जीत लिया है तो कहीं पर उम्मीद की कोई किरण आज भी सलामत है ... यहाँ हर कोई अंजान है फिर भी एक रिश्ता है जो अनायास ही एक दूसरे से बात करने को मजबूर करता है ,, सभी को तकलीफ है पर फिर भी एक दूसरे का हाल पूछ लेते हैं ... अलग सी दुनिया है ये .... और मै भी इसका एक हिस्सा हूँ । तकलीफ बहुत है पर फिर भी मुसकुराना है ,यही सोचते सोचते पूरा दिन बीत जाता है... कि "हँसते हुए चेहरे की रौनक कभी कम न होगी, दर्द कितने भी हों आँख आंसुओं से नम न होगी"

माँ के हृदय को माँ ही पढ़ सकती है या फिर अपराजिता जैसी कोई बेटी । आज उसके न होने से जो शून्य उत्पन्न हुआ है उसे किसी भी प्रकार से भरा नही जा सकता है।
गुफ़्तगू परिवार का धन्यवाद एवं आभार कि आपने अपराजिता की मशाल को जलाए रखा,रोशन रखा।  

माँ के उद्गार 
मेरी कलम से 

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